tag:blogger.com,1999:blog-7056011166391074188.post7989490858687300609..comments2024-03-20T11:47:25.959+05:30Comments on सबद: सबद पुस्तिका : १ : विष्णु खरेUnknownnoreply@blogger.comBlogger23125tag:blogger.com,1999:blog-7056011166391074188.post-37811265232229323952009-11-09T13:12:54.627+05:302009-11-09T13:12:54.627+05:30बेहतर...बेहतर...जय कौशलnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7056011166391074188.post-13021023567908754172009-10-04T20:01:32.495+05:302009-10-04T20:01:32.495+05:30माफ कीजिएगा कि बेनामी लिख रहा हूँ. पर वह फ्रिक न क...माफ कीजिएगा कि बेनामी लिख रहा हूँ. पर वह फ्रिक न कीजिए, बक़्त नज़दीक है कि नाम भी बता दूँगा.<br />विष्णु जी, क्या आपकों पहल में अंतिम अंक में छपी अपनी कविताएँ याद हैं, जरूर याद होंगी, आखिर आप कविताओं को बार बार पढते जो हैं. युवाओं में हो सकता है कि कुछ कमियाँ हो, भाषा शैली में परिष्कार न हो, हो सकता है कि वे जो लिखते हो, वह कविता ही न हो. लेकिन अपने और अपनी पीढी के गिरेबान में झाँक के देखे (देख सकेंगे). नहीं. आखिर आपकों जो अर्जुन सिंह के दरबार में हाजिरी जो देनी थी (आपकी संद्रभित कविता उनकी की चाटुकारिता से ज्यादा क्या थी), जाने दीजिएआप एक समय संजय गाँधी के सिपहसालार थे, और आपकी पीढी......... उसी के अपराधों को आज की पीढी भोग रही है. आप ही लोगों ने युवाओं को चाटुकारों की टोली में तब्दील कर दिया है. खैर, आप और आपका ईमान..... ख़ुदा खैर करें.Anonymousnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7056011166391074188.post-59750963903431274112009-10-04T00:49:37.895+05:302009-10-04T00:49:37.895+05:30अपने इस लेख से विष्णु जी आख़िर कहना क्या चाहते हैं ...अपने इस लेख से विष्णु जी आख़िर कहना क्या चाहते हैं कि भारत भूषण पुरस्कार भी कविता के और हिन्दी साहित्य के या दुनिया भर के अन्य पुरस्कारों की तरह ही जोड़-तोड़ की राजनीति से मिलता है।lina niajhttps://www.blogger.com/profile/05117115256242192926noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7056011166391074188.post-75754165601523737822009-09-28T21:19:27.039+05:302009-09-28T21:19:27.039+05:30vishnu Khare ka lekh pura padh gaya. Yeh samjhana ...vishnu Khare ka lekh pura padh gaya. Yeh samjhana mushkil hai ki ise lekar itna vivaad kyon ho raha hai. Puraskrit kaviyon par ki gayi tippaniyon ke alawa bhi bahut si mahattwapoorna baaten kahi gayi hain. Kaviyon par jo tippaniyan ki gayi hain, unko ek kavi-aalochak ki apni raay maan kar vichar hona chaahiye. jaroori nahin ki hum unse sahmat hon. Durbhaagya purna yeh hai ki jin kaviyon ke baaren mein pratikool tippaniyan ki gayi hain, ve uske pichhe shadyantra dekh rahe hain, Vishnu khare ki kuntha dekh rahe hain. Sankshipt hi sahi pratyek kavi par ki gayi tippaniyon mein vichaar ke sutra hain. Vishnu ji ne yathasambhav is aalekh ki bhasha ko sanyamit rakhne ka prayaas kiya hai.<br />Jawarimal ParakhJawarimal Parakhnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7056011166391074188.post-62301768543767978302009-09-19T07:39:11.869+05:302009-09-19T07:39:11.869+05:30खरे जी की समस्या यह है कि उन्हें साहित्य की सीधी र...खरे जी की समस्या यह है कि उन्हें साहित्य की सीधी राह चलना पसंद नहीं है। सीधे तैार पर चलना तो बिलकुल नहीं। चुपचाप अपना काम कर रहे कवियों लेखकों को मुहं चिढ़ाना, नोच-खसोट करना और इस तरह अपनी मानसिक खलिस मिटाना उनकी आदत है। अपनी इसी आदत के वशीभूत उन्हें हर छठे छमासे कोई आलेाचक, कोई कवि या कोई प्रसंग ढूंढ़ते रहना होता है। इस बार संयोग या दुर्योग से भारत-भूषण अग्रवाल पुरस्कार से पुरस्कृत कवि ही अगर उनके अंट पर चढ़ गये तो इसमें खरे जी का क्या देाष! आग का काम भस्म करना है। वह अपने जन्मजात कारणों से अपना काम करती ही रहती है। वैसे हमारे अग्निवर्षी खरे जी अपने स्वभाव में अग्नि की तरह इतने निःस्पृह, बेबाक और निडर भी नहीं हैं जितना कि दिखने या दिखाने का प्रयास करते हैं। जैसा कि अपने इस गर्हित उद्देश्य को छिपाने के लिए भूमिका गढ़ने का असफल प्रयास उनके इस लेख (?) में देखा जा सकता है। लेकिन उनकी सारी चतुराई के बावजूद यह समझना मुश्किल नहीं कि इस बार के निशाने पर उन्हें किसे रखना था, और कैसे रखना था। किस मुतवल्ली का कैसे उद्धार करना था । बचाने और बध करने में सिद्ध खरे जी की आलोचना जिन शब्दों या शब्द-पदों से अपने मुतवल्लियों का उद्धार करना चाहती है,उसकी कुछ बानगी यहां देखने लायक है-(1)‘‘भारद्वाज ने कविताएं कम लिखी हैं। लेकिन जिन्दगी को देखने की उनकी निगाह अलग और प्रसार दूरगामी है। उनका शिल्प बेजोड़ है।’’ अब इसमें ऐसा क्या है जिससे भारद्वाज जी कविता को समझने का द्वार खुलता है,यह तो वे मुतवल्ली वंधु ही बता सकते हैं जिन्हें खरे जी का यह आलेख‘‘आलोचना की अनिवार्य ऐतिहासिक कार्यवाही’’ जान पड़ता है। आश्चर्य है कि कुण्ठा से बजबजाते इस आलेख की तुलना मुक्तिवोध की धधकती ईमानदारी से करते हुए इन मुतवल्लियों की शारदा अपना सर पटक कर मर नहीं जाती। मगर हर चालाकी की अपनी एक सीमा होती है। विनोद भारद्वाज को उबारने और जितेन्द्र श्रीवास्तव को कविता की दुनिया से बाहर कर देने की मुहिम में रचा गया यह सारा खेल(लेख नहीं) अंततः जिस हास्यास्पद अंत को प्राप्त होता है, वह देखने ही लायक है। जितेन्द्र श्रीवास्तव की कविता पर पुनरूक्ति दोष वाला आरोप पढ़ कर रोना तो आया ही, अपने बालपन की एक घटना भी याद आई। परशुराम-लक्ष्मण-संवाद वाले प्रसंग में लक्ष्मण का एक बड़बोला कथन है: ‘‘जो राउर अनुशासन पावउं। कंदुक इव ब्रहमाण्ड उठावउं।।’’ हमारी तर्कवुद्धि इसे लेकर बहुत परेशान थी कि ब्रहमाण्ड उठाने वाले लक्षण स्वयं कहां खड़ा होंगे। तब हम लोग ऐसे प्रश्न पूछ कर अपनी वौद्धिकता प्रमाणित करते रहते थे। पूछने पर हमारे चाचा जी,जो स्वयं एक साहित्य-पाठी थे, ने समझाया कि अरे, वह तो क्रोध में कही बात है, इस पर इतनी माथा पच्ची क्यों करते हो। मुझे अब समझ में आता है कि ऐसी बालोचित तर्कशीलता से साहित्य को समझने की चेष्टा का उत्तर वैसे ही दिया जा सकता था जैसे कि चाचा जी ने दिया था। <br />अब ‘‘त्रेपन वर्ष’’ से लगातार साहित्य साधना में लगे विष्णु खरे जी को कोई कैसे समझाए कि साहित्य को यदि ऐसे तर्कांे से समझा जा सकता तो आज उसपर वकीलों, वैज्ञानिकों अथवा तर्कशास्त्र के मुदर्रिसों का कब्जा होता। सबसे दयनीय बात तो यह है कि खरे जितेन्द्र श्रीवास्तव की जिस कविता में पुनरूक्ति दोष देख रहे हैं वहां तो पुनरूक्ति दोष का कोई संदर्भ ही नहीं है। कलकत्ता की यात्रा के दौरान कवि गालिब को याद करता है और इसी क्रम में उनके कलकत्ता जाने से खुद के जाने को जोड़ कर कहता है-<br /> मैं जी भर कर देखना चाहता हूं कलकत्ता/इसलिए चाहे जितना पिराये कमर/चाहे जितनी सताए थकान/मैं लौटूंगा नहीं दिल्ली/जरूर जाऊंगा कलकत्ता<br /><br />अब यह तो कोई साधारण दृष्टि वाला मनुष्य भी बता देगा कि यहां मूल संदर्भ थकान है। थकान और कमर पिराने के प्रसंग से ‘कलकत्ता’ का शब्दार्थ एक अन्यार्थ ग्रहण करता है और इसी थकान और कमर पिराने की अनुभूति के कारण कविता एक साभ्यतिक यात्रा के इतिहास से जुड़ जाती है। अब यह तो विष्णु खरे जी का कोई मुतवल्ली ही बता पाएगा कि कविता की आखिरी पंक्ति अपनी पूर्ववर्ती पक्तियों से अलगा कर भला कैसे पढ़ी जा सकती है ? मगर विष्णु जी अलगा कर ही पढंेगे क्यों कि जितेन्द्र और केदारनाथ सिंह का वध इसी हथियार से करना उन्होंने तय कर लिया है।<br />अंत में, बहुत कुछ न कहते हुए,भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार से पुरस्कृत देवी प्रसाद मिश्र की कविता का सहारा ले कर अब तो यही कहना उचित होगा कि हे अपार-दृष्टि सम्पन्न महा आलोचक विष्णु खरे जी! आप कृपया कविता के मैदाने से बाहर जायं ताकि हमारा सहृदय समाज कविता के साथ अपना सरल और मनुष्योचित संबंध निर्मित करने में कामयाब हो सके। आमीन!kapildevhttp://mimansik.blogspot.comnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7056011166391074188.post-82067841024638353502009-09-15T09:01:45.211+05:302009-09-15T09:01:45.211+05:30अर्पित जी
बस इतना कहना चाह रहा था कि मूर्ख और धूर्...अर्पित जी<br />बस इतना कहना चाह रहा था कि मूर्ख और धूर्त में बहुत अंतर होता है-- और अगर धूर्त शीर्ष पर बैठा हो तो वह ज़्यादा घातक होता है।<br /><br />अभिनव ओझा जी के उत्तराधिकारी का स्वागत। ( यह कतई कटाक्ष न माना जाये। ब्लाग हो या प्रिंट भाषा का निबाह ज़रूरी है।)Ashok Kumar pandeyhttps://www.blogger.com/profile/12221654927695297650noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7056011166391074188.post-32907468773228963812009-09-15T05:40:54.721+05:302009-09-15T05:40:54.721+05:30अर्पित नामधारी जी
आपका धन्यवाद की आपने दिखावटी और...अर्पित नामधारी जी<br /><br />आपका धन्यवाद की आपने दिखावटी और बनावटी शालीनता का ढोंग रचे बिना टिप्पणी की। मैं विष्णु खरे की तरह कुलशीलवादी भी नहीं हूँ कि आपको न जानने के कारण हेय समझ लूँ। लेकिन आपकी मंशा पर शंका जरूर है। अभी तक आपने मूल पोस्ट पर अपनी कोई राय नहीं रखी है। आप तो सिर्फ विष्णु खरे से असहमति जताने वालों के खिलाफ कमेंट करने आते हैं। आपने पहले अनिल जनविजय का काउंटर कमेंट किया और अब मेरा। <br /><br />आपका इस लिए भी धन्यवाद कि,हिन्दी में अच्छे प्रूफरीडरों की कमी होती जा रही है। लेकिन इस बार आपने जल्दबाजी की है। कृपया दुबारा पढ़ें। और वैसे भी, आप कमेंट की प्रूफरीडिग करने की जगह लेख की प्रूफरीडिंग किया करें तो बेहतर। विष्णु खरे ने लिखा है...साहित्यसंगीतकलाहीन...? मूलतः संस्कृत से उठाया गया यह पदबंध सही है या गलत इस पर भी कोई राय जरूर दें। मैंने एक नमूना दिया है। शेष आपका काम है।<br /><br />मुझे एकबार किसी ने बताया कि कामायनी की प्रूफरीडिंग संभवतः शांतिप्रिय द्विवेद्वी ने की थी। उसी तरह मुक्तिबोध के भाषाई सीमाओं की तरफ खुद त्रिलोचन ने ध्यान दिलाया था। निराला को द्विवेदी- शुक्ल का सामना करना पड़ा था। सुना है कि कुछ संस्कृतनिष्ठ भाई लोगो को प्रेमचंद की हिन्दी उर्दू लगती थी !! <br />लुब्बेलुबाब यह है कि हिन्दी साहित्य के इतिहास में प्रूफरीडरों और सर्जकों का अपना-अपना इतिहास है। हर किसी का अपना काम है।<br /><br />आपको बता दूँ कि मैं काशी हिन्दु विश्वविद्यालय के गणित विभाग से स्नातक हूँ। मैंने कभी भी हिन्दी साहित्य की अकादमिक पढ़ाई नहीं की है। इसलिए आपसे कहुँगा है कि किसी के लिए अपने दुराग्रह के आधार पर सभी हिन्दी विभागों को कोसना ठीक नहीं है। रही हिन्दी के भविष्य की, भरोसा रखिए हिन्दी का भविष्य वही सुधारेगें जो हिन्दी को पेट से नहीं दिल से प्यार करते हैं। यदि मुझ जैसे कुछ बण्ड, जो कालांतर में बाणभट्ट कहे जा सकते हैं, का ज्ञान कुछ कम है तो भी कोई खास चिंता की बात नहीं है। हम धीरे-धीरे सीख लेंगे। बाण ने भी ऐसे ही सीखा था। आखिरकार निराला ने भी तो बीबी की लाग-डांट के बाद ही हिन्दी सीखी थी। हम आप जैसों की लाग-डांट से सीख लेंगे।Rangnath Singhhttps://www.blogger.com/profile/01610478806395347189noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7056011166391074188.post-17520470313749184012009-09-14T23:56:29.337+05:302009-09-14T23:56:29.337+05:30हिंदी आलोचना पिछले कुछ वर्षों से शिथिल हो चली है औ...हिंदी आलोचना पिछले कुछ वर्षों से शिथिल हो चली है और इसमें खरी और बेबाक बात कह देने का माद्दा भी घटता जा रहा है. आम तौर पर इसी धारणा के मद्देनज़र लेखक और पाठक सभी एक मौन निराशा से जूझ रहे हैं. कई बार देखने में यह भी आता है कि साहित्येतर गल्प भी साहित्यिक गल्प का नकाब ओढे साहित्य में घुसे आ रहे हैं. प्रायः पुरस्कारों पर भी यही आरोप लगते रहे हैं. जिसे मिल जाये वह निर्णय को सही बताता है, जिसे न मिल पाया वह उसमे कुछ नुक्स निकालता है. कुल मिला कर अपेक्षाओं और अहम् का यह योग हमें हर उस संयोजन, समीकरण और सन्दर्भों के दर्शन कराता है जिसमे रचना, रचनाशीलता और रचना धर्मिता कब की पीछे छूट चुकी होती है. हमारी प्रायः रचनाएँ भी मठोन्मुख हो रही हैं. शुद्ध लेखन जो बिलकुल मौलिक हो, इस पर जोर घटता जा रहा है. 'तुंरत-फटाफट' वाले इस समय में शोहरत भी instant ही चाहिए होती है, जब कि कला - साहित्य की साधना तो पूरी ज़िन्दगी मांगती है, और प्रायः एक ज़िन्दगी भी उसके लिए कम ही पड़ती है. <br />आज के इस माहौल में खरे जी का यह लेख महत्त्व रखता है. इसलिए नहीं कि उसमें अमुक निर्णायक या अमुक कवि को कमतर बताया गया है बल्कि इसलिए कि उसमें बेबाकी है . विष्णु जी कि स्थापनाओं से सहमत हुआ ही जाये, ज़रूरी नहीं है. लेकिन जिस बात पर उनके इस लेख की तारीफ होनी चाहिए वह यह है कि अपनी सहमती - असहमति, अपनी पसंद- नापसंद को उन्होंने बेबाकी से सामने रखा है. ज़रूरी नहीं है कि उनका कहा सब ठीक ही हो, लेकिन इससे आगे और भी कुछ लिखे जाने की संभावनाओ को बल तो मिला ही है, खास तौर से युवा लेखन पर. <br />यह लेख आपसी कलह को जन्म न दे कर अगर एक स्वस्थ साहित्यिक बहस को जन्म दे तो इससे हिंदी का ही भला होगा.Tushar Dhawal Singhhttps://www.blogger.com/profile/14406424952152408211noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7056011166391074188.post-56845506822726119512009-09-14T22:22:02.378+05:302009-09-14T22:22:02.378+05:30विष्णु खरे साहब खरी खरी बातें दो चार वाक्यों में न...विष्णु खरे साहब खरी खरी बातें दो चार वाक्यों में नहीं निपटायी जातीं. वह तो फ़तवेबाज़ी कहलाती है.और आप इसके मास्टर माने जाते हैं. कृपया कुछ मेहनत करें और किसी गहरे विष्लेषण के साथ अपनी बात करें.आपको किसी कवि की तारीफ़ या निन्दा करने का पूरा पूरा हक है पर अपनी बात ठोस ढंग से कहने की कृपा करें.. और यदि आप ऐसा नहीं कर रहे हैं तो फिर आपमें और हमारे तथाकथित शलाका पुरुष नामवर सिंह में फ़र्क ही क्या है?<br />-नरेश यादवAnonymousnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7056011166391074188.post-71443942615276024702009-09-14T22:11:18.568+05:302009-09-14T22:11:18.568+05:30'' यह भूमिका पुरस्कार समारोह ख़त्म होने के...'' यह भूमिका पुरस्कार समारोह ख़त्म होने के बाद बाहर जनता को फोटो कापी बांटी गयी.''<br /><br />इस वाक्य के गठन पर ध्यान दीजिए संपादक महोदय. ऐसे दुर्भाग्य हिंदी विभागों में जन्म लेते हैं. यह वाक्य (लेखक नहीं) किसी सिंह-मात्र की ही नाजायज़ संतान है.<br /><br />'' मेरी रूचि तो उस अंशतः संशोधन को जानने में है ''<br /><br />ध्यान दीजिए - आंशिक संशोधन नहीं, " अंशतः संशोधन ", और रुचि नहीं " रूचि ''.<br /><br />अगर ऐसे लोग हिंदी का भविष्य हैं तो हिंदी का भविष्य वही है जो उसका वर्तमान है.<br /><br />''…..पता तो चले की जनता को बांटे गये और किताब में छपवाए गये पाठ के बीच में क्या फर्क है ?''<br /><br />वह फ़र्क़ तो न जाने कब पता चले लेकिन इतना तय है कि एक मूर्ख और एक धूर्त में ज़्यादा फ़र्क़ नहीं है.Anonymoushttps://www.blogger.com/profile/00549456502045469944noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7056011166391074188.post-88232598154318208232009-09-14T14:06:35.106+05:302009-09-14T14:06:35.106+05:30अच्छी बुरी कविताएं लिखी जाती हैं.. और पुरस्कार भी ...अच्छी बुरी कविताएं लिखी जाती हैं.. और पुरस्कार भी साधे जाते हैं.. हिन्दी में ही नहीं अंग्रेज़ी में भी.. अगर जुगाड़ से नहीं तो किसी अन्य हेतुओं से.. <br />बड़ी देर में चेते..खैर! खरे जी ने देर से ही अपनी राय सामने रखी, अच्छी बात है.. उन्हे उसे रखने का पूरा अधिकार है, मैं उसका सम्मान करता हूँ, जितना किसी दूसरे व्यक्ति की राय का। आखिर कला मनोजगत का मामला है.. कोई आलू-प्याज़ तो है नहीं कि एक आलोचक ने तोल के बता दिया कि तीन छटांक है तो हर किसी के लिए उतना ही पड़ेगा। <br /><br />आदरणीय खरे जी की राय को अन्तिम ईश्वरीय निर्णय मानने की कोई ज़रूरत नहीं है.. जैसा कि कुछ लोग आभास दे रहे हैं..<br /><br />वो शायद इसलिए कि हिन्दी में प्रकाशक जो किताब छापता है उसे सरकारी संस्थानों में हिन्दी प्रभाग में जंग खा रही अलमारियों के खानों में ऊपर नीचे करने वाले चूहे पढ़ते हैं। कवि सम्मेलन में भी तो नहीं जाते हिन्दी कवि, जाना चाहे भी तो कैसे.. कविता से संगीत तो कब का घर-निकाला पा चुका। बेचारा कवि अपनी कविता के मूल्यांकन के लिए सिर्फ़ और सिर्फ़ आलोचक पर निर्भर है, और अपनी प्रतिष्ठा के लिए इन्ही आलोचको द्वारा निर्णीत पुरस्कारों पर।अभय तिवारीhttps://www.blogger.com/profile/05954884020242766837noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7056011166391074188.post-91611147880203422222009-09-14T09:59:34.525+05:302009-09-14T09:59:34.525+05:30जब ऐसे सत्ताधारियों के अनुगामियों, मातहतों, मुरीद...जब ऐसे सत्ताधारियों के अनुगामियों, मातहतों, मुरीदों और प्रशंसकों की संख्या बढ़ती जाती है तो जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे वे अपने भक्तों की उम्मीदों और मांगों के शिकार या क़ैदी भी होने लगते हैं. जो आराध्य अपने पूजकों को वरदान नहीं देता, उसकी मूर्ति शीघ्र ही उपेक्षित हो जाती है.......very nice.....mark raihttps://www.blogger.com/profile/11466538793942348029noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7056011166391074188.post-60843558863474197642009-09-14T03:07:00.844+05:302009-09-14T03:07:00.844+05:30विष्णु खरे की इस तथाकथित भूमिका को पढ़ कर समझ आता ह...विष्णु खरे की इस तथाकथित भूमिका को पढ़ कर समझ आता है की मुक्तिबोध आलोचक को साहित्य का दारोगा और चेखव आलोचक को घुड़मख्खी क्यों कहते थे !! ऐसे आलाचकों के कारण ही दुनिया भर के कई रचनाकार आलोचक नाम से चिढ़ते हैं….. <br /><br />इस भूमिका का उद्देश्य इसके उपशीर्षक में स्पष्ट है ” एक अंशतः विवादस्पद जायजा ”<br /><br />विष्णु खरे ने वाग्जाल बुनकर जो ब्लर्ब लिखे हैं उनकी रोशनी में मुझे साफ नजर आ रहा है की ये भूमिका सिर्फ विवाद पैदा करने के लिए लिखी गयी है. चार-दस लाइन में दाखिल-खारिज करके अदालती फैसला सुनाना विष्णु खरे के अगंभीर रवैये की पुष्टि मात्र करता है. विष्णु खरे ने इस संग्रह का चर्चा में आने के लिए दुरूपयोग किया है. यह भूमिका पुरस्कार समारोह ख़त्म होने के बाद बाहर जनता को फोटो कापी बांटी गयी. मेरी रूचि तो उस अंशतः संशोधन को जानने में है जो विष्णु खरे ने किताब में दी हुयी भूमिका में किया है…..पता तो चले की जनता को बांटे गये और किताब में छपवाए गये पाठ के बीच में क्या फर्क है ?Rangnath Singhhttps://www.blogger.com/profile/01610478806395347189noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7056011166391074188.post-67417364885076787642009-09-13T11:00:41.278+05:302009-09-13T11:00:41.278+05:30तो लगता है कि भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार भी अन्य प...तो लगता है कि भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार भी अन्य पुरस्कारों की तरह ही ऐसे निर्णायकों या ज्युरी मंडल के सदस्यों के हाथ में रहा जो अपने समय की उत्कृष्ट कवि प्रतिभा का आकलन करने में असफल रहे. अपवाद के रूप में, जिसने कठिन काव्य-निकषों के आधार पर और वैयक्तिक रुचियों, पूर्वग्रहों और संबंधों को परे रखते हुए चयन का मानक प्रस्तुत किया, वे कोई और नहीं स्वयं विष्णु खरे हैं। भारत भूषण अग्रवाल की संदिग्ध और सृजनात्मक प्रतिमानों के आधार पर 'भ्रष्ट' (Alter or shady)ज्युरी के सबसे संदिग्ध निर्णायक, खरे जी के अनुसार अशोक वाजपेयी ठहरते हैं क्योंकि :''अशोक वाजपेयी की प्रतिक्रियावादी विचारधारा एक ओर तो हिंदी साहित्य की एक बावली और साकित मगज़ी (लूनेटिक एंड डिकेंडेंट फ़्रिंज़)को साथ लिए और पोषित किए चलती है और दूसरी ओर देश के प्रशासकीय और राजनीतिक गलियारे और चित्रकला की अरबों रुपयों की 'एलीटिस्ट' दुनिया से ताकत हासिल करती है....''<br />(कविता की व्यावहारिक आलोचना के विकास के लिए खरे जी के ये आलोचनात्मक 'उपकरण' (tools of criticism)बहुत उपयोगी होंगे और 'एलीटिज़्म' की एक नितांत मौलिक और इतिहासोत्तर परिभाषा गढ़ने के लिए, मुक्तिबोध के बाद निस्संदेह उनका नाम अग्र-गणनीय होगा।)<br />अब अगले निर्णायक नामवर सिंह, जिन्होंने 'कविता के नये प्रतिमान' जैसी आलोचना की पुस्तक लिखी, उनके बारे में खरे जी की 'साहसिक''वस्तुपरक' और 'बेलाग' टिप्पणी देखिये :''नामवर सिंह का असर हिंदी की विस्तीर्ण पतनोन्मुख दुनिया , एक दयनीय लेखक संघ (इशारा प्रगतिशील लेखक संघ की ओर है) और हाशिये की राजनीतिक राजनीति पर है...''<br />ज़ाहिर है खरे जी और उनके अनुयायी इस 'हिंदी की विस्तीर्ण पतनोन्मुख दुनिया' के कीच-पंक से ऊपर कमलवत निष्कलंक उगे हैं, जिसके प्रमाण में अर्जुन सिंह-सुदीप बैनर्जी के शासनकाल में उनकी संघर्षशीलता, त्याग और गैरचाटुकारिता के उच्च 'माडल' स्थापित करने के प्रयत्न में देखा जा सकता है। <br />अब ले दे कर केदारनाथ सिंह बचे तो वे 'अजातशत्रु' और इतने 'मृदून कुसुमादपि' हैं कि उदय प्रकाश, अनामिका, अनिमेष, स्वप्निल जैसे ऐसे कवियों को यह पुरस्कार दे चुके हैं जो खरे जी के डबराल, अनिता वर्मा, सविता सिंह, विनोद भारद्वाज आदि के आसपास तक नहीं हैं।<br />खरे जी के मुताबिक हिंदी में (उनको और उनके अनुयायियों को छोड़ कर)'व्यामोह' (पैरानोइआ) और 'षडयंत्र सिद्धांत' (कांस्पिरेसी थ्योरी) स्थायी भाव की तरह चलती रही है, इसलिए स्पष्ट है कि उनके अलावा अन्य सभी निर्णायकों ने अपने-अपने'अनुगामियों''भक्तों' 'मुरीदों' और 'क्लाउट' के प्रतिभाहीन कुकवियों को ही भारत भूषण पुरस्कार बांटे हैं।<br />यहां यह स्पष्ट करना ज़रूरी है कि स्वयं उनके समेत खरे जी की लिस्ट के उत्कृष्ट कवियों को जो जो पुरस्कार, जिसमें साहित्य अकादमी, अनगिनत राज्यों के सरकारी पुरस्कार वगैरह शामिल हैं, वे बिल्कुल उचित और कठोर काव्य-सृजन कसौटियों के आधार पर ही दिये गये हैं। अर्जुन सिंह के पुत्र तत्कालीन संस्कृति मंत्री 'राहुल भैया' (अजय सिंह) के कार्यकाल में स्वयं इस प्रखर प्रतिभा संपन्न 'कवि-आलोचक शिरोमणि' विष्णु खरे को 'शिखर सम्मान' म.प्र. राज्य शासन द्वारा उनकी नैतिक सर्जनात्मक उत्कृष्टता और विचारधारात्मक दृढ़ता का ही स्वीकार है।<br />यह मेरी टिप्पणी की आंशिक पीठिका है। फ़िलहाल भारत भूषण पुरस्कार जैसे संदिग्ध पुरस्कार के बारे में मेरी निजी राय है कि कम से कम तेजी ग्रोवर, गगन गिल, उदय प्रकाश, स्वप्निल, अनिल सिंह, गिरिराज किराडू, बोधिसत्व, बद्री नारायण, विमल कुमार आदि को यह पुरस्कार तुरत इस समिति के संयोजकों को लौटा देना चाहिए और जब तक वे विनोद भारद्वाज, आर.चेतन क्रांति, सुंदरचंद ठाकुर, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल, सविता सिंह, अनिता वर्मा जैसी ऊंचाइयां और काव्य-कौशल न हासिल कर लें तब तक इस ओर न देखें। उन निर्णायकॊं को धिक्कार है। उन कवियों को भी।Anonymousnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7056011166391074188.post-34461156990920076832009-09-13T10:24:33.102+05:302009-09-13T10:24:33.102+05:30इस आलेख के बहाने एक टिप्पणी:- http://likhoyahanvah...इस आलेख के बहाने एक टिप्पणी:- http://likhoyahanvahan.blogspot.com/2009/09/blog-post_13.html<br />देखें।विजय गौड़https://www.blogger.com/profile/01260101554265134489noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7056011166391074188.post-23768716383269938912009-09-13T01:11:58.136+05:302009-09-13T01:11:58.136+05:30विष्णु जी कसाई किस्म के आलोचक हैं . यहां कसाई शब्द...विष्णु जी कसाई किस्म के आलोचक हैं . यहां कसाई शब्द को निर्मम की तरह प्रशंसामूलक अर्थ में ग्रहण करें . वे समकालीन हिंदी आलोचना में ’परशुरामी आलोचना’ के जनक हैं .<br /><br />संजय चतुर्वेदी,कुमार अम्बुज और देवीप्रसाद मिश्र तथा प्रेमरंजन अनिमेष और मनोज कुमार झा के संबंध में उनकी सकारात्मक टिप्पणियों से सहमति है .<br /><br />अनिल कुमार सिंह और निशांत की कविताओं पर उनकी टिप्पणी कवियों से अधिक उन्हें पुरस्कार देने वालों पर टिप्पणी मानी जानी चाहिए .<br /><br />उदयप्रकाश और बोधिसत्त्व की कविताओं पर उनकी टिप्पणी जॉन डन की ’कंसीट्स’ की तरह है जिसकी गिरह सिंधु घाटी सभ्यता की लिपि के डिसाइफर होने तक शायद ही खोली जा सके .<br /><br />जिस आलोचक की निगाह में उदय प्रकाश से ज्यादा महत्वपूर्ण कवि विनोद भारद्वाज और विमल कुमार हों,उसे आलोचना के जुरूरी काम से कुछ समय के लिये फुरसत पाकर किसी ऑफ़्थैल्मोलॉजिस्ट से तुरत सम्पर्क करना चाहिए .<br /><br />कई अच्छे कवियों से हमारी पहली/शुरुआती पहचान कराने वाला भारतभूषण पुरस्कार वस्तुतः अपने चरित्र में अधिनायकवादी किस्म का पुरस्कार है जिसकी ’जूरी’ तो है पर वस्तुनिष्ठ प्राचलों के आधार पर ’जूरी’ के सदस्यों के बीच किसी स्वस्थ ’डेलिबरेशन’ के बाद एक सुसंगत निर्णय तक पहुंचने का कोई अवसर यहां नहीं है . इसका निर्णय एक निर्णायक अपनी निजी पसन्द और नापसन्दगी के आधार पर करता है और फिर उसके लिये तर्क गढता है . <br /><br />यही कारण है कि सभी कवि-निर्णायकों ने ये पुरस्कार अपने जैसी शैली में कविता लिखने वाले अनुयायी को ही दिये हैं .भले ही वे उनके सांद्र अम्ल का तनु अम्ल बनाते हों और कोई नई जमीन तोड़ना तो दूर उसे ताकते भी न हों . ऐसे युवा कवि कविता में एक किस्म का पातिवर्त्य निभाते हैं या कहें गंडाबंद घरानेदारी वाली कविता करते रहते हैं . <br /><br />अगर विष्णु खरे को अशोक वाजपेयी द्वारा पुरस्कृत कवि उनकी प्रतिमूर्ति-से दिखते दुहरावग्रस्त और अर्थहीन लगते हैं तो कई भरोसेमंद काव्य-मर्मज्ञों को विष्णु खरे द्वारा पुरस्कृत कुछ बाद के कवि अगर उनकी लद्दड़ गद्यात्मक शैली की फीकी अनुकृति लगें तो आश्चर्य क्या.<br /><br />यह शानदार आलोचना कुछ कम शानदार दिखने लग पड़ती है जब प्रशंसित कवि विनम्र कृतज्ञताज्ञापन के बजाय उन्हें ’पारदर्शी , विचार-प्रवण , मूल्यनिष्ठ और मार्मिक; मूल्यवान दुर्लभ विवेक;सुखद और महत्त्वपूर्ण ;ठोस और उपजाऊ ’आदि विशेषण सर्टीफ़िकेट के रूप में देने लगे .<br /><br />यह ’मुक्तिबोध की-सी धधकती हुई ईमानदारी’ की बजाय वह स्थिति ज्यादा लगती है जिसकी ओर विष्णु खरे ने अपने लेख में इशारा किया है .<br /><br />विष्णु जी की इस बात से पूरी सहमति है कि हिंदी कविता के संसार में " सत्ताधारियों के अनुगामियों, मातहतों, मुरीदों और प्रशंसकों की संख्या बढ़ती जाती है तो जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे वे अपने भक्तों की उम्मीदों और मांगों के शिकार या क़ैदी भी होने लगते हैं. जो आराध्य अपने पूजकों को वरदान नहीं देता, उसकी मूर्ति शीघ्र ही उपेक्षित हो जाती है. औलिया और मुतवल्ली एक-दूसरे से ताक़त हासिल करते हैं." <br /><br />बिपिन कुमार शर्मा की इस राय से पूरा इत्तिफ़ाक है कि राकेश रंजन बेहतर कवि हैं .चौपटस्वामीhttp://samakaal.wordpress.comnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7056011166391074188.post-8519643491584349492009-09-12T22:07:46.425+05:302009-09-12T22:07:46.425+05:30आदरणीय विष्णु जी को तीस साल बाद जो सुधि आई है उसे ...आदरणीय विष्णु जी को तीस साल बाद जो सुधि आई है उसे इमानदार कतई नहीं माना जा सकता। तीस साल तक पुरस्कारों के पत्रों पर बिना हिचक हस्ताक्षर करने के बाद उन्हें होश आया कि उनके अलावा सारे निर्णायक भांग पीकर निर्णय करते रहे हैं।<br /><br />जिन कविताओं की वह सार्वजनिक मंचो से वाहवाही कर चुके हैं वे अब उन्हें कूडा लग रही हैं। जितेंद्र की कविता उनके साथ ही तद्भव में छपी थी…तब वे चुप रहे…पुरस्कार मिला तब भी…बोधि की कविता जब अनामिका और अंबुज जी के साथ (शायद साहित्य एकेडमी के कार्यक्रम में) पढी गयी थी तो पुरस्कार मिलने के पहले ही वह इसे पुरस्कृत कर चुके थे… पर अब पागलदास पागलपन नज़र आ रही है।<br /><br />देर से आई इस सदबुद्धि का स्वागत किया जा सकता था अगर वह अंधा बांटे रेवडी के सूत्रधार न होते। अर्जुन सिंह पर चमचागिरी की हद तक जाकर कविता(?) लिखने वाले कवि वैसे भी यूं ही कुछ नहीं करते। <br /><br />इसे पढकर ऐसा लग रहा है कि जो कवि उनकी तरह गद्य में नहीं लिखते या जिनके साहित्य में अभी लय बची है वे सब अयोग्य हैं और उनका अनुशरण कर चौकोर कवितायें(?) लिखने वाले और उनके झोले ढोने वाले ही कविता के युवा माडल हैं।<br /><br />हिन्दुस्तानी राजनीति में नेता के ज्ञानचक्षु तभी खुलते हैं जब वह पार्टी बदलने वाला होता है या फिर नई पार्टी बनाने वाला। कभी चुनाव लडने को बेक़रार रहे विष्णु जी जे साथ भी यही हुआ लगता है।Ashok Kumar pandeyhttps://www.blogger.com/profile/12221654927695297650noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7056011166391074188.post-38922064332290470812009-09-12T22:02:01.330+05:302009-09-12T22:02:01.330+05:30स्वप्निल की पुरस्कृत कविता का नाम '' ईश्वर...स्वप्निल की पुरस्कृत कविता का नाम '' ईश्वर बाबू '' ही है. " ईश्वर एक लाठी है " उनके कविता-संग्रह का शीर्षक है और " कह रहा हूँ जुनूं में क्या-क्या " की जगह अगर '' बक रहा हूँ जुनूँ में क्या-क्या '' लिखते तो जनविजय महोदय का '' ज्ञान '' इतने लज्जाजनक तरीक़े से पाठकों के सामने न आया होता. जब टिप्पणीकर्ता द्वारा प्रस्तुत तथ्य ही इतने भ्रष्ट हैं तो मूल्यों के बारे में कुछ न कहना ही बेहतर है.<br /><br />सिर्फ़ चेला होना पर्याप्त नहीं है जनविजय जी. कविता और कविता की आलोचना पर बात करने के लिये कुछ पढाई-लिखाई भी हो तो अच्छा होगा.Anonymoushttps://www.blogger.com/profile/00549456502045469944noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7056011166391074188.post-61505316133464131622009-09-12T10:19:30.607+05:302009-09-12T10:19:30.607+05:30vishnu khare ne bahut sahas k sath bharatbhushan a...vishnu khare ne bahut sahas k sath bharatbhushan agrwal smriti puraskar prapt kavion pr jo tipanni ki hai, wah bahut zaroori tha.umeed hai unke is bahastalab lekh ko swasth tarike se aage badhaya jayega.yah puraskar kai aisi kavitaon pr diye gaye jo nissandeh us warsh ki sresth to kya samanya kavitayen v nahi thin.nishant aur jitendra srivastav ki kavita iska taza udahran hai.namvar singh ne parikatha me ashok tripathi se baat karte hue kavi rakesh ranjan ki 5 kavitaon ko poora poora udhrit kiya tha aur bhoori bhoori tareef ki thi.lekin jab puraskar k liye chayan ka samay aaya, to unhen 28 sal ka 'ladka' yaad aa gaya.jabki rakesh k samne bahut km kavitayen padhne yogya bhi thahrti hain.agar vyaktigat rag-dwesh sadhna ho to chayankarta kisi aur trah se apni kripa varshayen, puraskaron ko iska madhyam na banayen.isse kavita k prati aam pathkon ki ruchi ghatati hai. doosre, puraskaron ko lekar in vidwanon ka rawaiya kitna gairjimmedarana hai, yah aaj ka pathak bhali-bhanti samajh rha hai. vishwsniyata sirf kavita ki hi nahi, aalochna ki v ghati hai.<br /><br />Bipin kumar sharma.JNU...9868565061Unknownhttps://www.blogger.com/profile/15434018696273091084noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7056011166391074188.post-28283104985930609912009-09-11T20:27:43.696+05:302009-09-11T20:27:43.696+05:30आदरणीय विष्णु जी की अधिकांश बातों से असहमत होना कि...आदरणीय विष्णु जी की अधिकांश बातों से असहमत होना किसी भी काव्य-रसिक व्यक्ति के लिए कठिन है. हां, इस लेख के बाद उन लोगों को लिखने की प्रेरणा जरूर मिल सकती है जो प्रशंसातिरेकी काव्यालोचन के दबाव में जाने-अनजाने चुप थे.Pankaj Parasharhttps://www.blogger.com/profile/06831190515181164649noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7056011166391074188.post-87435251493431171442009-09-11T18:35:54.345+05:302009-09-11T18:35:54.345+05:30विष्णु खरे जी का यह लेख शानदार है . बहुत ...विष्णु खरे जी का यह लेख शानदार है . बहुत निर्मम , पारदर्शी , विचार-प्रवण , मूल्यनिष्ठ और मार्मिक . इस तरह सच कहने का साहस ही आज हिन्दी आलोचना में नदारद है . इसीलिए वह मूल्यवान होना तो दूर ,<br />उल्लेखनीय भी नहीं हो पा रही है . लेकिन इस आलेख में अच्छे और बुरे में फ़र्क़ करने का दुर्लभ विवेक है .<br />समकालीन युवा कविता के इतिहास में शायद पहली बार यह हुआ है कि किसी प्रतिष्ठित कवि- आलोचक ने दो-टूक यह बताया है कि उसकी नज़र में कौन-से युवा कवि और उनकी कौन-सी कविताएँ अच्छी हैं अथवा नहीं हैं और ऐसा आखिरकार क्यों है . इससे साबित होता है कि इतिहास-प्रक्रिया में यह मुमकिन ही नहीं है कि आप लम्बे समय तक लिखते या पुरस्कृत होते चले जायें और आपकी रचनाशीलता पर कभी कोई निर्णय आये ही नहीं . युवा कविता के सन्दर्भ में गौरतलब है कि इस लेख और पिछले दो-तीन वर्षों में जगह-जगह छपे प्रणय कृष्ण , आशुतोष कुमार , प्रियम अंकित , शिरीष कुमार मौर्य और व्योमेश शुक्ल के लेखों के मद्देनज़र फ़ैसले की यह घड़ी <br />अब आ गयी है . यह सुखद और महत्त्वपूर्ण है कि विष्णु खरे ने इस अनिवार्य और ऐतिहासिक आलोचनात्मक कार्रवाई की ठोस और उपजाऊ ज़मीन तैयार कर दी है . यह मक़ाम है , जहाँ आलोचित कवियों को हमलावर होने की <br />बजाए आत्मालोचन करना चाहिए और कुछ आलोचकों को ज़्यादा संपूर्ण , ज़्यादा वस्तुनिष्ठ और ज़्यादा गहन विश्लेषण की दिशा में , अगर वे चाहें तो , आगे बढ़ना दरकार है . विष्णु खरे की ज़्यादातर बातों से असहमत होना<br />असंभव है , क्योंकि वे बातें सचाई की पुकार के मानिन्द हैं . उनमें मुक्तिबोध की-सी धधकती हुई ईमानदारी है . इस मामले में समकालीन हिन्दी संसार में वह अनन्य हैं . आप <br />उनसे असहमत हो सकते हैं , मगर यहाँ मैं प्रसिद्ध आलोचक मैनेजर पाण्डेय का यह बयान उद्धृत करना चाहूँगा------<br />"असहमत होने का नैतिक अधिकार उसको ही है , जिसका अपना भी कोई मत हो . लेकिन हिन्दी में तो यह माहौल है <br />कि अक्सर लोग यह कहते मिलते हैं कि हमारा अपना कोई मत नहीं है , लेकिन हम आपसे सहमत नहीं हैं ." विष्णु खरे ने आखिर इसमें क्या गलत कहा है कि देवी प्रसाद मिश्र और कुमार अम्बुज अब तक पुरस्कृत युवा <br />कवियों में सबसे अच्छे , समर्थ और महत्त्वपूर्ण कवि हैं . उनके इस आलेख पर आगे बहस हो सकती है और शायद होगी भी , मगर मेरी नज़र में उसमें व्यक्त ज़्यादातर बुनियादी स्थापनाएँ , मंतव्य और observations बिलकुल सही हैं . आगामी काव्यालोचना के लिए यह लेख बेहद अहम , कारगर और बहुआयामी प्रस्थान की<br />ऐतिहासिक भूमिका निभायेगा . विष्णु खरे के शब्दों में कहूँ , तो यह अपने प्रकाश से भावी आलोचना को परावर्तित<br />करेगा .<br /> -----पंकज चतुर्वेदी<br /> कानपुरUnknownhttps://www.blogger.com/profile/02638993799838924937noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7056011166391074188.post-71234723350596661322009-09-11T01:07:41.135+05:302009-09-11T01:07:41.135+05:30विष्णु जी इस आलेख के माध्यम से क्या कहना चाहते हैं...विष्णु जी इस आलेख के माध्यम से क्या कहना चाहते हैं, यह अस्पष्ट ही रह गया। यह आलेख वैसा ही चलताऊ किस्म का है, जैसी चलताऊ समीक्षाएँ फिलर के तौर पर कुछ पत्रिकाएँ प्रकाशित करती हैं। एक-एक दो-दो वाक्यों में कविताओं को निपटा देने और कवियों तथा निर्णायकों <br />पर आलोचना के नाम पर अपना फ़तवा देने से ही लेख अच्छा नहीं बन सकता। अच्छे आलोचक को यह भी बताना चाहिए कि इन कविताओं में और कवियों में कमी क्या है। स्वप्निल श्रीवास्तव की कविता का नाम "ईश्वर एक लाठी है" था, "ईश्वर बाबू" नहीं। रघुवीर सहाय की कविता "रामदास" से तो उसका कोई साम्य ही नहीं है। कहाँ "रामदास" और कहाँ "ईश्वर एक लाठी है"। स्वप्निल की कविता वृद्ध पिता के बारे में है जिनका ईश्वर ही सहारा है। विष्णु खरे ने वह कविता पढ़ी ही नहीं, बस, अपनी स्मृति के आधार पर ही जो मन में आया लिख मारा। "कह रहा हूँ जुनूं में क्या-क्या"।<br />ऐसा लगता है यह लेख उन्होंने बस लिखने के लिए लिखा है और इस पर पूरी मेहनत नहीं की है।अनिल जनविजयhttps://www.blogger.com/profile/02273530034339823747noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7056011166391074188.post-65164604656058456652009-09-10T21:37:52.008+05:302009-09-10T21:37:52.008+05:30मतलब कि 'उर्वर प्रदेश'का नया संस्करण आया ह...मतलब कि 'उर्वर प्रदेश'का नया संस्करण आया है. <br />जो भी हो , आलेख पूरा पढ़ गया. बहुत ही उम्दा और निर्मम आलोचना से भरा.<br />'सबद' का आभार इसे मुझ तक पहुँचाने के लिए.siddheshwar singhhttps://www.blogger.com/profile/06227614100134307670noreply@blogger.com