tag:blogger.com,1999:blog-7056011166391074188.post546351451162557029..comments2024-03-20T11:47:25.959+05:30Comments on सबद: बही - खाता : ७ : कुंवर नारायणUnknownnoreply@blogger.comBlogger5125tag:blogger.com,1999:blog-7056011166391074188.post-1181597331606480492009-04-23T21:31:00.000+05:302009-04-23T21:31:00.000+05:30kiraadoo ji shurooaat karte hain ek kshobh se ki &...kiraadoo ji shurooaat karte hain ek kshobh se ki 'aaj ke bahut-se kathakaar (yathaarth ke) usi framework mein likh rahe hain' & aqheer tak aate-aate ek qism ki qhushi se bhar uthate hain ki 'vinod kumar shukla ka path itna ekaaki nahin rahega'-----iske liye unhen haardik badhaaee !<br /> -----pankaj chaturvedi<br /> kanpurUnknownhttps://www.blogger.com/profile/02638993799838924937noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7056011166391074188.post-9214298475529145852009-04-23T17:28:00.000+05:302009-04-23T17:28:00.000+05:30"मैंने कई कहानियों को एक खास तरह से इस्तेमाल किया ..."मैंने कई कहानियों को एक खास तरह से इस्तेमाल किया है, कहानी की किसी परिचित जाति को ठेस पहुंचाकर। इस ठेस पहुँचाने के दौरान मैंने पाठक से एक नए दृष्टिकोण की मांग की है जिसमें वह कहानी के जादू से मुग्ध होकर नहीं, कहानीकार के साथ पूरी तरह जागा रहकर अपने-आपसे तर्क-वितर्क करता चलता है। इस कोशिश में कहानियां कभी-कभी कविता और निबंध की विधा के काफी निकट आ गईं हैं, लेकिन शायद इस तरह नहीं कि उनकी बुनियादी पहचान ही गुम हो गई "<br /> <br /> <br /> <br />इसके बरक्स <br />ये जो अपने आप के भीतर अपनी क्रियेटिविटी तलाशने और मापने और पहचानने का एक सहज गर्व (गर्व शब्द शायद अपने सबसे हम्बल कनोटेशन में इस्तेमाल कर रही हूँ ) ..जो कि हर लेखक में अपने लेखन के संदर्भ में होना ही चाहिये , उस नयेपन का एक नैचुरल ग्रेस से अक्सेप्टेंस और इंट्रोडक्शन ...बस इतना ही लेखक को कहना चाहिये अपने लेखन के लिये ..न इससे कम न इससे ज़्यादा <br /> <br />कुँवरजी ने यही किया है .. सरल सहज और मैटर ऑफ फैक्ट वे में नये रास्तों की बात की है ..ये उनके जैसा लेखक ही कर सकता है , बिना शोरशराबे , बिना हँगामे के , एक दुनिया के समकक्ष दूसरी दुनिया खड़ी की है ..समझ की और परसेप्शन की <br /> <br />कहानी क्यों किसी स्ट्रक्चर और फॉर्मूला में बँधे ? पाठक को ज़मीन दे फिर उड़ जाये सब दिशाओं में , जैसे हवा में सेमल के फूल...<br />to go from concrete to abstract and back ..the easy passage back and forth in time , space , layers and dimensions ....what freedom of expression , such limitless joy of creativity<br />what more could one want ..what more<br /> <br />प्रत्यक्षाpratyakshahttp://pratyaksha.blogspot.comnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7056011166391074188.post-15642801603209798092009-04-23T12:59:00.000+05:302009-04-23T12:59:00.000+05:30हरेक कहानीकार का अपना नजरिया होता है....हरेक की एक...हरेक कहानीकार का अपना नजरिया होता है....हरेक की एक अपनी शैली ...मनोहर श्याम जोशी की कस्बाई शैली हो....या फणीश्वर नाथ रेनू की गवई शैली .या निर्मल वर्मा का अपने तरीके से कहने का अंदाज ....तीनो भाते है....डॉ .अनुरागhttps://www.blogger.com/profile/02191025429540788272noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7056011166391074188.post-78711839427779649282009-04-23T09:25:00.000+05:302009-04-23T09:25:00.000+05:30कुंवरजी की यह भूमिका और उनकी कहानियां हिंदी कहानी ...कुंवरजी की यह भूमिका और उनकी कहानियां हिंदी कहानी को ही नहीं बल्कि साहित्य के बारे में हमारी सामूहिक हिंदी समझ को भी किसी और ही दिशा में ले जा सकती थीं - ऐसा हुआ नहीं यह सच है. आज भी जो 'नए' कथाकार दिखाई दे रहे हैं उनमें से बहुत से उसी फ्रेमवर्क में लिख रहे हैं जिसके बरक्स कुंवरजी ने यह एक अप्रत्याशित दुनिया कहानी की बनाई थी पैंतीस बरस पहले हालाँकि लिखी हुई और भी पहले की होनी चाहिए (उन्होंने लिखा है इसी भूमिका में कि यह संग्रह कुछ बरस पहले भी छपवाया जा सकता था लेकिन तब ऐसा करना उस बहस में लामुहाला पकड़ लिया जाना होता जो कहानी को लेकर...) 'यथार्थ' का जो कल्ट हिंदी में बना हुआ था/है उसके बरक्स यह कुफ्र था. और एक बेहद खुदमुख्तार कुफ्र. <br /><br />मिलान कुंदेरा ने योरोपीय उपन्यास के इतिहास को इस तरह पढ़ा है कि जिन मार्गों पर, संभावनाओं पर योरोपीय उपन्यास नहीं गया वे कौनसी थीं? हिंदी में कुंवरजी, रघुवीर सहाय का कथा लेखन ऐसे ही मार्ग हैं. विनोद कुमार शुक्ल का पथ इतना एकाकी नहीं रहेगा- उनके कवि और कथाकार दोनों से चुनौती और प्रेरणा लेने वाले युवा अभी से दृश्य में हैं. <br /><br />मुझे उनके कवि ने भी बहुत आकर्षित किया है लेकिन अगर यह असंभव चुनाव करना ही पड़े तो मैं उनकी कहानियाँ चुनुँगा - 'गुड़ियों का खेल' नहीं होती तो शायद मैं साहित्य में नहीं होता. ऐसे ही कुछ मजमूनों ने,उस कच्ची उम्र में, अपना बेडा गर्क किया था.giriraj kiradoohttp://www.pratilipi.innoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7056011166391074188.post-24843392731299653522009-04-23T01:06:00.000+05:302009-04-23T01:06:00.000+05:30बढ़िया समीक्षात्मक आलेख.बढ़िया समीक्षात्मक आलेख.Udan Tashtarihttps://www.blogger.com/profile/06057252073193171933noreply@blogger.com