कुछ शब्द हैं जो अपमानित होने पर
स्वयं ही जीवन और भाषा से
बाहर चले जाते हैं
'पवित्रता' ऐसा ही एक शब्द है
जो अब व्यवहार में नहीं,
उसकी जाति के शब्द
अब ढूंढें नहीं मिलते
हवा, पानी, मिट्टी तक में
ऐसा कोई जीता जागता उदहारण
दिखाई नहीं देता आजकल
जो सिद्ध और प्रमाणित कर सके
उस शब्द की शत-प्रतिशत शुद्धता को !
ऐसा ही एक शब्द था 'शांति'.
अब विलिप्त हो चुका उसका वंश ;
कहीं नहीं दिखाई देती वह --
न आदमी के अन्दर न बाहर !
कहते हैं मृत्यु के बाद वह मिलती है
मुझे शक है --
हर ऐसी चीज़ पर
जो मृत्यु के बाद मिलती है...
शायद 'प्रेम' भी ऐसा ही एक शब्द है, जिसकी अब
यादें भर बची हैं कविता की भाषा में...
ज़िन्दगी से पलायन करते जा रहे हैं
ऐसे तमाम तिरस्कृत शब्द
जो कभी उसका गौरव थे.
वे कहाँ चले जाते हैं
हमारे जीवन को छोड़ने के बाद?
शायद वे एकांतवासी हो जाते हैं
और अपने को इतना अकेला कर लेते हैं
कि फिर उन तक कोई भाषा पहुँच नहीं पाती.
****

जंगली गुलाब
नहीं चाहिए मुझे
क़ीमती फूलदानों का जीवन
मुझे अपनी तरह
खिलने और मुरझाने दो
मुझे मेरे जंगल और वीराने दो
मत अलग करो मुझे
मेरे दरख़्त से
वह मेरा घर है
उसे मुझे अपनी तरह सजाने दो,
उसके नीचे मुझे
पंखुरियों की शैय्या बिछाने दो
नहीं चाहिए मुझे किसी की दया
न किसी की निर्दयता
मुझे काट छांट कर
सभ्य मत बनाओ
मुझे समझने की कोशिश मत करो
केवल सुरभि और रंगों से बना
मैं एक बहुत नाजुक ख्वाब हूँ
काँटों में पला
मैं एक जंगली गुलाब हूँ
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[ कुंवर जी की अन्य रचनाएं यहाँ ]
Comments
यादें भर बची हैं कविता की भाषा में..."
जीवन भी ऐसी ही परतों में छिपा है. कविता का उत्खनन तमाम स्मृतियों को एक निहायत बारीक संवेदना में खंगालना हैं. इस तरह की कविता कुंवर जी के अनुभवों का सम्पुजन हैं.
'शायद 'प्रेम' भी ऐसा ही एक शब्द है, जिसकी अब
यादें भर बची हैं कविता की भाषा में...'
इस सूरत में दुनिया कैसी होगी यह अनुमान लगाना कठिन हैं
Anurag shukriya..
हमारे जीवन को छोड़ने के बाद?
सर्वदा अनुतरित ,जो एक समय था,वो कहाँ चला जाता है,क्या संभव है होना हर समय अस्तित्ववान हुए बिना ....सब कुछ एक बार है -संपूर्ण,था और होगा-ये वे आँखें हैं जिनसे वो स्थिर रखता है 'स्पेस ' को।
जब भी इस ब्लॉग पर कुंवर नारायण जी की पोस्ट पढ़ी है उनकी लेखनी से लगाव और बढ़ता गया है
शुक्रिया अनुराग .. फिर से एक बेहतरीन पोस्ट से रूबरू करवाने का
और पहली कविता
दोनों अच्छी है
पर पहली कविता के कंटेंट से मेरी सहमती नही है
कवि ने बहुत निराशा में रचा होगा .
निराशा
और निराशावादी होना
मै गलत नही मानती
लेकिन उस निराशा में जिसे उन्होंने यूनिवर्सल सच मान लिया है उससे मेरी असहमति है.