{ समर्थ अपने नामानुरूप ही कविता और गद्य लिखने वाले युवाओं में विशिष्ट हैं. हिंदी की पहली कविता-पुस्तक यहां छपी ऐसी ही अनेक कविताओं से इन दिनों बन रही है. अंग्रेजी में उनकी दो कविता-पुस्तक पहले आ चुकी है. इस स्तंभ लिए उन्हें न्योतने की एक वजह इधर लिखी जा रही युवा कविता और विचार के बहुरंग से पाठकों को लगातार अवगत कराना भी है.}
आत्मकथ्य
सोचता हूं जब जन्म लिया तो अनेक अपेक्षाओं में कविता लिखना तो नहीं ही रहा होगा। बहरहाल, कई वर्षों से लिख रहा हूं, या यूं कहें लिखने की कोशिश कर रहा हूं। कैशोर्य में कविताएं सिर्फ़ अंग्रेज़ी में लिखी, और इक्कीस की उम्र के बाद एक भी नहीं। रातों-रात जैसे ये आभास हुआ कि सार्थक सर्जना उसी भाषा में संभव है जो हमारे हाथों से आकार पाती है। अब भी हिन्दी से अंग्रेज़ी में अनुवाद करता हूं - अपने सबसे बड़े कामों में मैं सौमित्र जी की लुक़मान अली के अंग्रेज़ी अनुवाद को गिनता हूं।
कविता मेरे लिए उन चीज़ों को समझने का माध्यम है जिन्हें मैं बदलना चाहता हूं पर जिन पर मेरा कोई बस नहीं। सोचता हूं कि जिस यूटोपिया की हम कविता में कल्पना और कामना करते हैं, वो कहीं भी क्यूं नहीं है? प्रकृति में नहीं, हमारी प्रकृति में भी नहीं! ये मेरी वैज्ञानिक बुद्धि और कविता का संघर्ष है। क्या विकास ने जैसे हमें बनाया, हम कुछ और हो सकते थे? क्या हमारी आदिम प्रवृत्तियां ही तय करेंगी कि हम क्या होंगे? उम्मीद है ऐसा नहीं होगा।
जिन कवियों को बचपन से पढ़ता और पसंद करता आया हूं उनमें केदारनाथ सिंह, अरुण कोलातकर, पाश, अफ़ज़ाल अहमद सैयद, जयंत महापात्र, और दिलिप चित्रे शामिल हैं। मौजूदा दौर में पहल सरीखी पत्रिकाओं के बंद होने पर जो सतही शोक प्रकट किया जाता है, वह मुझे चिंता में डालता है। ये बात भी कि कविता लिखने की वजहें कम से कमतर होती जा रहीं हैं। इन समस्याओं का कोई आसान हल समझ नहीं आता, पर कहीं तो होगा ही - कविता के यूटोपिया में ही छिपा शायद!
सन् २००९ ने मुझे वो दिया जो कल्पना से परे था। एक डॉक्टर की लापरवाही के चलते मेरे कर्णनाद (tinnitus) की शुरुआत हुई। २४ घंटे कानों में बजती मंद घंटियों की सी आवाज़ - या किसी बिगड़ चुके इनवर्टर की विद्युत बीप-बीप। अपने सुसाइड नोट मैं बहुत पहले लिख चुका था। अब तय ये करना था कि जीना क्यूं है। बहरहाल, मैं जिया और इसमें कविता का बहुत बड़ा हाथ रहा। औरों की कविता का ज़्यादा - वे कविताएं जिन्हें मैं आत्मसात कर चुका था। मयाकोवस्की की पंक्तियां - 'In this life, there's nothing hard in dying. / Making life worth living is much harder.' इस बुरे दौर के अनुभवों को अब भी सहेज रहा हूं। आशा हैं ये भी कभी अभिव्यक्ति पाएंगे।
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कविताएं
मुनीर बशीर* के लिए एक कविता
सारिका के पुराने अंक के
मुखपृष्ठ पर जब देखा तुम्हारा चेहरा
बहुत साल बीते।
तब कविता थी ज़िंदगी से नदारद
सीख रहा था शायद
राग भूपाली के आरोह-अवरोह -
नहीं जानता था बिल्कुल
सितार और ऊद के मध्य के अंतर।
शायद सुन पाता कभी तुम्हारे मक़ाम
अगर धरती होती चोकौर -
रविशंकर के लक़-दक़ चेहरे के साथ
दिख जाते तुम भी टी.वी. पर
एक-आध बार।
कहां, मुनीर?
धरती के किस कोने में निर्वासित
या शायद इराक़ में ही कहीं बजती ऊद -
भव्य बमवर्षकों की गर्जना तले
शायद बसरा में सहमते हों सुर
शायद जार्डन में मिल जाए कहीं
या जा पहुंची हो वो भी अमरीका।
दिन-रात इंटरनेट पर
पत्रिकाओं में, चैटरूमों में
नहीं मिलते मुनीर!
(मुनीर बशीर - सन् सत्तानवे में इंतक़ाल)
किसी अरबी अख़बार में
छ्पा होगा तुम्हारा मर्सिया -
अफ़सोस मैं अरबी नहीं जानता।
और आश्चर्य
ऊद भी ग़ायब!
(*मुनीर बशीर इराक़ के मशहूर ऊद-वादक थे। अरबी संगीत में उनका योगदान अभूतपूर्व रहा।)
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प्रतीक्षा
कितना मुश्किल है
किसी रेस्त्रां में बैठकर
बारिश रुकने का करना इंतज़ार
कि जब
सिगरेट का तीखा धुआं
घुल रहा हो
पकवानों की
मखमली गंध के साथ
जब प्लास्टिक चढ़े शीशों से
दिखती हो शाम की लाली
कुछ और गहरी, अजनबी।
कि क़ायदे से
कंकरीट में उगे किसी दरख़्त
की पत्तियां करती दिखें
तारतम्य में नाच
या शून्य में ताकने पर एकटक
नन्हीं बूंदों की कोई कतार
उभरे तिरछी, सुनहरी
कि कोई तो हो उपाय
बाहर रखने पर कदम
भिगो न पाएं आखिरी फुहारें
भीतर तक।++++
सुबह
1
मां आई
और मेरे कमरे की खिड़कियों के
पर्दे गई खींच
इसी ताक़ में था जैसे
सूरज
बंद पर्दों और खुली खिड़कियों
का ही लगा
मुझे दो पीढ़ियों का फ़ासला।
2
दो बार पुकारा उसने मेरा नाम
कच्ची नींद में मैंने सुना
अनसुना
फैली रही उसकी सुगंध मेरे आस-पास ही
उसके जाने के दो घंटे बाद जब मैं उठा
तो सिरहाने दूध का गिलास
और जिंको-बिलोबा* की नारंगी गोली
दफ़्तर पहुंचा तो सीट पर बैठते ही फ़ोन
कि गर्म नहीं रह पाया होगा दूध तब तक तो
(*चीनी चिकित्सा-पद्धति में इस्तेमाल की जाने वाली एक जड़ी-बूटी। कर्णनाद (tinnitus) के इलाज में सुझाई जासकने वाली मुट्ठी-भर औषधियों में से एक।)
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स्मृतियां
स्मृतियों में बाक़ी है उजास
मां है
वैसे
जैसे खुद को भूल चुकी है वो
मैं हूं
जैसे
मां को ही याद हूं मैं
स्मृतियों में खोह हैं
गहरी खाइयां
जिनसे अब भी
निकल रहे हैं हम
स्मृतियों में पूर्वज
छूटे शहर
जा चुके फ़रिश्ते
भली लगती हैं स्मृतियां
स्मृतियों में बाक़ी है सुख
अब भी टपक जाता
नीम काले किसी दिन में यकायक
++++
प्रारब्ध
बेहतर है
कि जब फेंके जा रहे हों पासे
तान दूं सीने पर बंदूक
ऐन उसी व़क्त
खो चुका है वैसे भी बहुत कुछ
दर्शक बने-बने
करूं दुस्साहस
अबकी बार!
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मार्क्स
कपड़े खंगालते अचानक
आई तुम्हारी याद
तुम्हारी दाढ़ी-सी धवल मेरी कमीज़ पर
चढ़ आया था कोई रंग।
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एक आवारा कुत्ते का समाधि-लेख
जब तक जिया
गंधाया नहीं।
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Comments
शुभकामनाएँ.
कि कोई तो हो उपाय
बाहर रखने पर कदम
भिगो न पाएं आखिरी फुहारें
भीतर तक।
भीतर तक भीग जाने की कामना क्यों की जाए, जब भीतर मख़मली गंध और नन्ही बूंदों की क़तारें पहले से हों?
ऐसा नहीं है कि बाहर से कोई लेना-देना नहीं, क्योंकि भीतर बैठकर इंतज़ार करना बहुत मुश्किल है, यह भी वह ठीक वहीं कहते हैं, लेकिन भीतर के मोल पर नहीं. यह कविता के लिए प्रतिबद्धता है. सचेत अचेतनता अभिनय या जेस्चर्स से नहीं, सहज गुणों से विकसित होती है. यह बोर्हेस के लैबीरिंथ की तरह सबसे श्रमसाध्य है, तो सबसे सुगम भी.
समर्थ उन कवियों में हैं, जिनकी कविताओं का इंतज़ार रहता है.